जीवनरूपी रंगमंच
बहुत अधिक सोचते रहने से भी निराशा पनपती है। एक तो ऐसे में कोई ठोस व्यावहारिक कदम नहीं उठ पाता तथा जीवन विफलताओं से भरा रहता है और ऐसे में भूलवश कोई बुराई या गलत कर्म हो गया हो तो वह मामूली कुकर्म भी भारी अपराध जान पड़ता है। ऐसे में हीनता की भावना पैदा होती है, निराशा घर कर जाती है और मन अवसाद से ग्रसित हो जाता है। इस तरह कुढ़न के समाधान के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मन को लक्ष्य में व्यस्त रखें और बहुत अधिक सोच-विचार न करें। जीवन को एक खेल समझकर जिएँ, इस जीवनरूपी रंगमंच के नाटक में कुशल पात्र की भाँति अपनी भूमिका अदा करें। यदि राह में कोई गलती हो जाए तो उसे अधिक गंभीरता से न लें, बल्कि इनसे सिख लेकर आगे बढ़ें।
Thinking too much leads to despair. One, in such a situation, no concrete practical step can be taken and life is full of failures and in such a situation, if some evil or wrong action has been done by mistake, then even that minor misdeed seems like a heavy crime. In such a situation, a feeling of inferiority arises, despair sets in and the mind suffers from depression. In this way, in order to resolve the frustration, it becomes necessary to keep the mind busy with the goal and not to think too much. Live life as a game, play your role like a skilled character in this life-like theater drama. If there is a mistake on the way, do not take it too seriously, but learn from them and move forward.
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...