सद्गुरु
सद्गुरु शिष्य को विद्या का दान करता है। विद्या वही है, जो सत्प्रवृत्तियों को उभारे दे, सद्भावनाओं को समर्थ कर दे। इसी में आत्मिक विकास की समस्त सम्भावनाएँ सन्निहित होती हैं। यही गुरु का अनुदान-वरदान है, जिसे पाकर शिष्य का जीवन महान् हो जाता है और गुरु भी गर्व का अनुभव करता है। ऐसे शिष्य सदैव सत्पथ पर बढ़ता जाता है, वह कुमार्गगामी नहीं होता है। अनर्थमूलक चिंतन नहीं करता, वह तो सदा अपने गुरु को ब्रम्ह के रूप में स्मरण करता है। उसको कुसंग में अरुचि उत्पन्न होती है और सत्संग में ऐसा खो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व तक का भान नहीं रहता।
Sadguru donates knowledge to the disciple. Knowledge is the one, which awakens good tendencies, empowers goodwill. All the possibilities of spiritual development are included in this. This is the grant-boon of the Guru, after receiving which the life of the disciple becomes great and the Guru also feels proud. Such a disciple always moves on the right path, he does not go astray. He doesn't think about evil, he always remembers his Guru in the form of Brahma. He develops distaste for Kusang and gets lost in Satsang to such an extent that he is not even aware of his existence.
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...