धर्म अहंकार नहीं
बहुत से स्कूल होने से या अनेक विश्विद्यालय होने से जैसे शिक्षा में बाधा नहीं पड़ती, किंतु कुछ लाभ नहीं होता है, उसी प्रकार बहुत-सी धर्म संस्थाएँ होने से सच्चे धर्मं में बाधा नहीं पड़ती, पर शर्त इतनी है की धर्म को धर्म समझिए, अहंकार का सहारा नहीं। मेरा धर्म बड़ा, तुम्हरा धर्म छोटा, इस उक्ति में धर्म प्रेम नहीं है, अहंकार है। अगर कोई प्यासा इस बात पर वाद-विवाद करे कि तुम्हारे गाँव का तालाब मेरे गाँव के तालाब से एक किलोमीटर छोटा है; इसलिए तुम्हारे तालाब से मेरा काम कैसे चलेगा ? तब हम कहेंगे-पागल, यह तो बता कि तुम्हारे हाथ का घड़ा कितने किलोमीटर का है ? एक किलोमीटर के तालाब से तुम्हे अपने घड़े भर पानी मिल सकता है कि नहीं ?
Just like having many schools or many universities does not hinder education, but does not bring any benefit, similarly having many religious institutions does not hinder true religion, but the condition is that religion should be considered as religion, No ego support. My religion is big, your religion is small, in this statement religion is not love, it is ego. If someone thirsty argues that the pond in your village is one kilometer smaller than the pond in my village; So how will I work with your pond? Then we will say - crazy, tell me, how many kilometers is the pitcher in your hand? Can you get your pitcher full of water from a one kilometer pond or not?
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...