प्रत्यक्षवाद
पश्चिमी प्रत्यक्षवाद ने सत्य को इंद्रियों की सीमा में समेटने की जो बालहठ ठानी है - उसी के चलते वह आध्यात्मिक सत्यों को समझने में विफलप्राय हुआ है। सत्य की व्यापकता को भला सीमाबद्ध कैसे किया जा सकता है। एक गागर में भला समूचा सागर कैसे कैसे समा सकता है। जो अदृश्य सूक्ष्म एवं इंद्रियातीत है, वह स्थूल परिकरों में कैसे और किस तरह प्रकाशित हो ? प्लेटो के आदर्शवाद से लेकर मर्स्क के आदर्शवाद तक तत्वविद्या को अमान्य तो किया जा सकता है परंतु सच्चाई से भागा और बचा नहीं जा सकता। जब भी चिंतन या विचार अपने बारे में पूरी तरह से चैतन्य होता है तो वह अध्यात्म बन जाता है।
Western positivism has failed to understand spiritual truths because of its obstinate determination to confine truth to the limits of the senses. How can the generality of truth be limited? How can the whole ocean be contained in a jug? What is invisible, subtle and beyond the senses, how and in what way can it be published in gross circles? From Plato's idealism to Mersk's idealism, philosophy can be invalidated but truth cannot be run and avoided. Whenever contemplation or thought is fully conscious of itself, it becomes spiritual.
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...