उत्तर संस्कृति
भयावह विडंबना यह है कि उत्तर संस्कृति के ग्लेशियर हमारी संस्कृति, भाषा साहित्य और सभ्यता को शवों में बदलने पर तुले हैं। हमें मालूम है कि इन शवों पर बैठकर कुछ नहीं मिलेगा और यदि कुछ पाना ही है, संभालकर रखना ही है और विरासत में छोड़ना ही है तो हमें न केवल बाजारवाद, उपभोक्तावादी चकाचौंध और साहित्यिक अनैतिकता के प्रति सचेत रहना है, बल्कि पेड़ों तले और वनों में पली आरण्य संस्कृति को बचाना भी है। हमारे स्थापित सांस्कृतिक मूल्यों को मटमैला और भोथरा बनाना उत्तर संस्कृति की जिद है, जिसने साहित्य सृजन, समीक्षा, सम्मान-पुरस्कार, राजनीति, धर्म, दर्शन आदि में अपने ही रंग का एक जबरदस्त हस्तक्षेप पैदा कर दिया।
The terrible irony is that the glaciers of the North are bent on turning our culture, language, literature and civilization into dead bodies. We know that we will not get anything by sitting on these dead bodies and if we have to get something, preserve it and leave it as a legacy, then we have to be conscious not only about marketism, consumerist glamor and literary immorality, but also about the things under the trees and in the forests. We also have to save the forest culture that grew up in India. It is the insistence of the Northern culture to make our established cultural values dull and dull, which has created a tremendous interference of its own color in literary creation, review, honors and awards, politics, religion, philosophy etc.
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...