मन का स्वभाव
वर्तमान क्षण को जी लिया जाए तो ही इसकी संपूर्ण एवं समग्र सार्थकता है। वर्तमान का क्षण या तो अतीत की भ्रांतियों से क्षत-विक्षत होता है या फिर भविष्य की भ्रांति में असहज होता है। मन का स्वभाव है कि या तो वह पीछे मुड़ता है या आगे बढ़ता है। पीछे मुड़ने में उसे सहजता होती है; क्योंकि उस पल को वह जी चूका है या फिर भविष्य के सपने बुनता है, सकल्पना करता है, जो कि अभी आया नहीं है। भविष्य के सपने बुनने में अधिक कोई परेशानी नहीं होती; क्योंकि उसे कुछ करना नहीं पड़ता है। कोई संघर्ष नहीं है वहाँ, कोई चुनौती नहीं वहाँ, केवल बैठे-बैठे सपना ही तो देखना है।
It is only if the present moment is lived that it has complete and total meaning. The present moment is either tormented by the delusions of the past or uncomfortable with the delusions of the future. It is the nature of the mind to either turn back or move forward. He finds it easy to turn back; Because he has lived that moment or weaves dreams of the future, imagines, which has not come yet. There is no more trouble in weaving dreams of the future; Because he doesn't have to do anything. There is no struggle there, no challenge there, just sitting and dreaming.
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...