परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम
महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी प्रकार से कर्मकाण्डीय परम्परा का अनुसरण करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती का मत है कि पूर्वकृत विनियोग कोई अटल रेखा नहीं कि उसका अनुसरण करना अनिवार्य हो। सभी आचार्यों ने एक मंत्र का विनियोग एक प्रकार से ही नहीं किया है। उन्होंने एक मंत्र का अन्य प्रकार से भी विनियोग किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मंत्र का पूर्वकृत विनियोगों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पूर्वकृत विनियोगों के सम्बन्ध में कहा है कि जो युक्तिसिद्ध एवं वेदादि प्रमाणों के अनुकूल हो तथा जो मंत्रार्थ के अनुसार हो, वह विनियोग ग्राह्य हो सकता है। महर्षि ने स्वयं को पूर्वकृत विनियोगों के बन्धन में नहीं बांधा और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में ही कहा कि वेद केवल कर्मकाण्ड नहीं है, ज्ञानकाण्ड, उपासनाकाण्ड और विज्ञानकाण्ड परक अर्थ भी किए जाने चाहिएं। उनके भाष्य से वेद में अग्नि, वायु आदि वेदवर्णित देवताओं से अनेक देवों की पूजा की भ्रान्ति नहीं होती है। अन्य भाष्यकारों ने अग्नि, वायु आदि से परमेश्वर से भिन्न अभिमानी देवों का ग्रहण किया है, वहीं महर्षि ने उन्हें, एक परमेश्वर का गुणवाची माना है।
Maharishi Dayanand Saraswati is of the opinion that the previous Viniyog is not a fixed line which must be followed. All the Acharyas have not used a mantra in one way only. They have used a mantra in other ways also. From this it appears that the mantra has no relation with the previous Viniyog. Maharishi has said in Rigvedadibhashyabhumika regarding the previous Viniyog that the Viniyog which is logical and in accordance with the evidences of Vedas and which is in accordance with the meaning of the mantra can be accepted. Maharishi did not bind himself in the bondage of the previous Viniyog and said in Rigvedadibhashyabhumika itself that Vedas are not only rituals, meanings should also be made according to the Gyankanda, Upasanakanda and Vigyankanda.
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