मनुष्य सामाजिक प्राणी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समस्त चेतन जगत् में यह सर्वश्रेष्ठ भी है, परन्तु कोई भी दूसरा प्राणी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर इतना अधिक आश्रित नहीं है, जितना वह है। अपनी शारीरिक तथा मानसिक आवश्यकताओं को जुटाने के लिए यह जन्म से लेकर मरण पर्यन्त प्रातः से रात्रि तक अनेक व्यवहार करता है और यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो ज्ञात होगा कि ये सभी व्यवहार दो चीजों के वशीभूत होकर करता है। उनमें से पहला शब्द है मन और दूसरा शब्द है धन। ये ही दो वस्तुएँ हैं, जिनके चुंगल में फंसा प्रत्येक प्राणी सारा जीवन मारा-मारा फिरता है। मन बड़ा शक्तिशाली और अत्यंत चंचल है। जैसे मदारी बन्दर को नचाता है ठीक इसी प्रकार यह मन रूपी बन्दर हमें भी नाचता रहता है।
हमें न चाहते हुए भी इसके इशारों पर विवश होना पड़ता है। वह अपने प्रभाव से हमें अपने पीछे भागने पर मजबूर करता है और ऐसा करते-करते हम प्रायः विषय-वासना के गर्त में ऐसे गिर जाते हैं, जहाँ से निकलना असम्भव हो जाता है और इस प्रकार हम अपना सर्वनाश कर बैठते है।
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परमात्मा के अनेक गुणवाचक नाम महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के 7वें मंडल के 61वें सूक्त के दूसरे मंत्र तक और माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के सम्पूर्ण मंत्रों का भाष्य किया। उससे पूर्व उवट, महीधर और सायण इस का भाष्य कर चुके थे। उवट और महीधर के भाष्य मुख्य रूप से कात्यायन- श्रौतसूत्र में विनियोजित कर्मकाण्ड का अनुसरण करते हैं और सायण के भाष्य भी इसी...